Friday, January 28, 2011

सच को मत बिकने दो

सच को मत बिकने दो
सबसे ताकतवर तंत्र को क्या हो गया है। न्याय-अन्याय के ताने-बाने सिकुड़ते जा रहे हैं। उस तंत्र पर गण का भरोसा शायद हमें,आपको, हम सबको नहीं रहा। हक में फैसला मिलने का यकीन नामुमकिन सा दिखता है। इसके बाद न्याय के तमाम रास्ते बंद, खत्म से दिखते हैं। न्यायपालिका। क्या आप इस तंत्र को आज भी न्याय के भरोसेमंद मानते हैं या उस वटवृक्ष में पलता-बढ़ता पुष्पित होते देख रहे हैं जो खोखला, भ्रष्ट हो चुकने की स्थिति में
लकवाग्रस्त हो चुका है। या फिर उस दल-दल पथ पर अगुवा बना बैठा है जिस होकर पाप व पुण्य का फैसला
संभव नहीं। न्याय देने वाले हाथ गिरवी पड़ रहे हैं। काला कोट वाले तराजू पर इंसाफ को तौल रहे हैं। जहां आम आदमी के लिये इंसाफ की देवी को कलंकित, अमर्यादित करने से भी वे नहीं हिचकते। जिन्हें सलाखों के पीछे होना चाहिये समाज के मुंशी बने हैं और उत्सव जैसा होनहार यंग पढ़े-लिखे नौजवान को खंजर उठाने की जरूरत आन पड़ती है। यानी इस मर्यादित सिस्टम में भी छेद साफ, चौड़ा हो गया है। खगोल विज्ञान के महारथी जल्द ही रात में भी धरती से दूसरा सूरज उगाने की तैयारी में हैं। इसी साल आकाश में प्रकाश का ऐसा गजब नजारा दिखेगा जिससे आपको रात में सूर्य की रोशनी नजर आयेगी। पर यहां न्याय का विहान कब होगा। हम आज वहां खड़े हैं वहां कातिल को मुंसिफ बनाने की तैयारी हो रही है। दुर्भाग्य है। जहां न्यायपालिका से भी लोग ना उम्मीद हो उठे हों। उस समाज, देश का क्या होगा सोचनीय है। यहां इस मुल्क का कानून मंत्री ही स्वयं बोफर्स मामले में क्वात्रोच्चि के बैंक खाते से रोक हटाने का मार्ग प्रशस्त करने की पहल करता दिखे और आम गण न्यायपालिका से रहम, न्याय की भीख मांगता खड़ा हो। इतना ही नहीं, वह आम आदमी अपना सब कुछ देने को तैयार बैठा हो बस बदले में शर्त इतनी कि न्याय जल्द दे दो। जल्द न्याय पाने के लिये भारत की सबसे महत्वपूर्ण खुफिया एजेंसी की पूर्व महिला अधिकारी निशा प्रिया भाटिया हाई कोर्ट में कपड़े उतारने को विवश दिखती है। अर्धनग्न हो जाती है उस इंसाफ की मंदिर में जहां से वह निराश हो चुकी है और बदले में उसे उस वक्त भी क्या मिलता है सिर्फ एक और कलंक। उसपर मानसिक संतुलन खा देने का आरोप। वाह रे सिस्टम। पुणे के एक 60 वर्षीय बुजुर्ग व्यापारी तिकोठकर जमीनी विवाद में कोर्ट का चक्कर लगाते इतने थक गये कि आखिकार उन्होंने हाईकोर्ट को बीस हजार रुपये का चेक यह मनुहार लगाते भेज दिया कि रुपये ले लो पर तारीख मत दो। तिकोठकर जज को ई-मेल भी करते हैं कि मेरे मामले का जल्द निबटारा हो। आखिर इस मजबूत तंत्र को हो क्या रहा  है। जिस देश में राज्यपाल के आदेश के बाद मुख्यमंत्री पर अभियोजन की अनुमति मिले और पूरा विधायिका ही राज्यपाल की भूमिका पर सवाल दागने लगे। पक्ष-विपक्ष एकदम आमने-सामने दिखे। जहां फैसला आने से पहले पूरे न्याय संगत सिस्टम को मैनेज कर लिया जाये। भला उस देश के बारे में सोचिये जहां अजमल कसाब के लिये तो मनमाफिक वकील कोर्ट में उसे नाबालिग ठहराने पर अडिग खड़ा हो लेकिन रूपम पाठक के वकील को धमकी मिले। रूपम का केस लडऩे को कोई काला कोट तैयार न दिखे। ये न्यायपालिका के सामने कशककश क्यों? आरूषि-हेमराज मर्डर में पिता डा. राजेश तलवार हों या रूचिका हत्याकांड का वह राठौर दोनों पर खंजर चलाने वाला उत्सव क्या समाज का वह आईना नहीं है जो हम सबों के सामने न्यायपालिका का असली चेहरा परोस रहा है। उत्सव की भावना को पूरा देश समझ रहा है। उसकी सोच, मंशा, इशारे को सभी समझ रहे हैं। शायद वो न्याय देने वाले भी जो उसे काल कोठरी में भेजने का फरमान बार-बार देने को विवश हो रहे हैं। क्या न्याय देने वाले नहीं समझ रहे कि उनकी जेब में गांधी गरम हो रहे हैं या फिर चंद सुर-सुरी  के आगे उनकी आंखें आज लोअर से लेकर सर्वोच्च न्याय के मंदिर तक इंसाफ की देवी की मानिंद आंख पर पट्टी बांध बैठ गये हैं जहां से वही दिखता है जिसे पूरी दुनिया सह-स्वीकार नहीं कर सकती। सच जहां खुलेआम बिकने को मजबूर बैठा हो और झूठ शान से दुष्शासन बन उत्सव जैसे भविष्य को छलनी करने पर आमादा हो उस तंत्र से ना उम्मीद होना स्वभाविक।

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