Friday, January 7, 2011

हाऊस वाइफ का बदलता क्लचर

हाऊस वाइफ का बदलता क्लचर
पहले पढ़े-लिखे लोग या सभ्य, सुसंस्कृत परिवारों में हाऊस वाइफ को ही पसंद करते थे। घर पर बीवी पति का घंटों अकेले इंतजार करती दिख जाती थी। संयुक्त परिवारों में तो घरेलू हाऊस वाइफ को ही तरजीह मिलती रही है। अब हाऊस वाइफ कंसेप्ट थोड़ा बदलता दिख रहा है। शिक्षित परिवारों की बातं तो दूर अल्प विकसित परिवारों में भी काम-
काजी महिलायें ही तरजीह पा रही हैं। पति-पत्नी दोनों काम पर और बच्चे किसी रिश्तेदार के सहारे या फिर हास्टल व अन्य जगहों पर। यही वजह है कि प्ले विद्यालय बड़े शहरों से चलकर छोटे शहरों में खुलेआम हर गली में मिलने लगे हैं। लेकिन समय मानता नहीं। आप जितनी दूर सोच से आगे बढ़ेंगे समय वहां अगुआ बन पहले से मुस्तैद दिखेगा। ऐसे में सामाजिक परिवर्तन के स्याह चेहरे सामने आ रहे हैं। पत्नी काम पर और पति रसोई, घर में। चूल्हा संभालने से बच्चों को विद्यालय छोडऩे तक। सब बेचारा हाऊस वाइफ बन संभाल रहा है हमारा चंगू। हमारे मोहल्ले में लोग उसे चंगू के नाम से ही पुकारते तो नहीं लेकिन आपस में जब भी उसकी बात होती है तो इसी नाम से बात जरूर करते हैं। चंगू उदास है। रहमगंज मोहल्ले में एक भाड़े के मकान में रहता है हमारा चंगू। उसकी पत्नी सरकारी अस्पताल में नर्स है। सरकारी पार्ट टाइम नर्स। सो पैसे के लाले तो रहेंगे ही। आठ महीने से तनख्वाह नहीं मिली है। दो बच्चे हैं-नीलू व सोनू। दोनों निजी इंग्लिश विद्यालय में पढ़ते हैं। ऊपर से मकान का किराया अलग। खाना-पीना वगैरह-वगैरह। लिहाजा सुनीता ने प्राइवेट नर्सिंग होम भी ज्वाइंन कर लिया है। अब बेचारा चंगू वैसे उसका नाम रामाशंकर है पर काम
का बोझ ज्यादा बढ़ गया है। सुबह सबेरे छह बजे बच्चों को विद्यालय पहुंचाना वो भी पैदल करीब तीन किमी । फिर घर लौटकर बत्र्तन धोना, घर की सफाई व कपड़ा धोना अलग से। पत्नी को चाय गर्म के साथ सरकारी अस्पताल ले जाने के लिये नाश्ता बनाना। नाश्ता के बाद फिर घर के बाकी कामों के साथ ही खाना तैयार करते-करते बज गया एक। फिर विद्यालय का समय। डेढ़ बजे बच्चों की छुट्टी से पहले
 चंगू हाजिर है विद्यालय के मेन गेट पर। बच्चे विद्यालय से लौट गये हैं। घर में हो-हल्ला को शांत रखना भी तो चंगू के जिम्मे है सो बेचारा खाना लगाकर बच्चों को मन्नतें कर रहा है आकर खा लो। नीलू तो शांत भी है खा लेती है लेकिन सोनू की बदमाशी चल रही है। इसी सब में बज गया तीन। पत्नी लौटती है थकी हारी अस्पताल से। बेचारा चंगू पानी लेकर हाजिर है लो पी लो...। खाना गरम हो रहा है। खाने खाते कब चार बज गये पता ही नहीं चला। सुनीता प्राइवेट अस्पताल के लिये कपड़े चेंज कर निकल पड़ती है। पांच बजे शाम से वहां रात ग्यारह बजे तक वहीं डयूटी है। अब सुनीता रात को ग्यारह बजे वहां से अकेली लौटेगी कैसे...। आटो कभी मिलता कभी नहीं भी। चंगू साइकिल से घर से विदा होता है करीब दस बजे। घर पर खाना खिलाकर बच्चों को सुला चुका है। प्राइवेट नर्सिंग में सीरियस मरीज के आ जाने से सुनीता को कुछ देर है सो बेचारा चंगू वहीं बाहर इंतजार कर रहा है। सुनीता निकलती है रास्ते में कोई आटो नहीं सो चंगू ही साइकिल पर बिठा कर पत्नी को घर लाता है। 
दूसरा सीन :
सुनीता मोहल्ले की अन्य महिलाओं से बातें कर रही हैं। क्या करें। सरकारी में तो यही है। पैसा टाइम पर मिलता ही नहीं सो प्राइवेट ज्वाइंन कर लिया। वैसे है ही बहुत दूर। मनीषा भी वहां डयूटी करने में तैयार नहीं हुई। वो भी रहती तो दोनों साथ जाते अकेले बहुत परेशानी है। कई बार मनीषा से कहा अरे सरकारी में पैसा नहीं है तू मेरे साथ यहां च्वाइंन कर ले पर तैयार नहीं हुई। अब नीलू के पापा को भी इसी वजह से यहां रखे हैं घर-रसोई देखना है। बच्चे छोटे हैं। सबको खाना भी तो टाइम पर मिले। 

दृश्य तीन देखिये
बेचारा चंगू। हर समय चेहरे पर एक ही भाव। न खुशी ना गम। आज नीलू का बर्थ डे है। पत्नी के आदेश पर वह सब्जी से लेकर अन्य सामान सुबह से ही जुटा रहा है। शाम को एक बड़ा सा कोट , जूता व पेंट पहनकर हाथ में झोला लिये वो चला जा रहा है निर्विकार बाजार की ओर। लोग बगल से गुजर भी जा रहे हैं लेकिन चंगू की गर्दन नब्बे डिग्री पर ही है। आखिर हाऊस वाइफ जो ठहरा बेचारा- चंगू...।   


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