Friday, July 26, 2013

लौट आओ ए महात्मा बुद्ध

पोस्टेड ओन: 28 Jun, 2013 जनरल डब्बा में

असभ्य होना, कहलाना अलग-अलग दो चीजें हैं। अमर्यादित, अनियंत्रित हम आदिकाल से हैं। व्यभिचार, अनाचार, दुष्कर्म, समलैंगिक, अनैतिक ससंर्ग की परिभाषा पूर्व से बनते, गढ़ते, लिखते रहे हैं। बस, व्यवहार, उसपर अमल उसे आत्मसात करना अब हमने शुरु किया है। हमारी जरुरत, मंशा, सोच उस जानवरों से भी बदतर, बदसूरत हालात, शक्ल में है जहां संपूर्ण मानवतावाद का स्तर स्वयं खतरे में, हताश, पराजित सामने है। एक जानवर कभी सेक्स की मादकता, उसकी भूख, जरुरत बलात्कार से नहीं उतारता, भरता, मिटाता। बल्कि, उसकी असली तह तक पहुंचता, टटोलता स्त्री विमर्श के लिए अपने ही पुरुषिया वर्ग से जूझता, लड़ता, थकता दिखता है। विजयी होने पर ही उस स्पर्श, शरीर को संपूर्णता देता, भोगता उसका वरण करता है। हमारी तरह हर वक्त, हर हमेशा महिलाओं को निहारता, सूंघता नहीं। हम बलात्कार भी करते हैं और पूरी मर्दानगी दिखाते संसद से लेकर सड़क तक। भरी सभा में उस देह चरित्र की उघार भी करते। तमाम अनर्गल नसीहत देते उस संपूर्ण नारी जाति की मानसिकता को कटघरे में खड़ा कर उसपर चोट करने की मजा भी उठाते, लेने से बाज नहीं आते। अरे, जानवरों के भी सेक्स करने का कोई मौजू, कोई मौसम होता है। मगर, पुरुष जाति हमेशा उसी गर्मी की ताक में कभी बस पर चढ़ते, ट्रेनों में, घर लौटती स्त्रीत्ववाद पर एक खतरा, झाग फेंकने की ताक में हर हमेशा।
बौद्ध युग यानी महात्मा बुद्ध का वो दौर हो चाहे आज के हालात। हम बेलगाम, बेशर्मों की कतार में उस युग, काल से सीना उघारे, बांहें फैलाए खड़े हैं वो भी बिना रुके बिना थके। जहां, मां-बेटी का फर्क भी उस जानवरों की तरह खत्म, बेअसर है जो सेक्स के लिए संबंध नहीं टटोलते। देखते, जोड़ते, तलाशते हैं सिर्फ एक देह। जो संपूर्ण नारी की स्वतंत्रता के लिए शुरु से ही एक बड़ा खतरा रहा है। एक जानवर, भले सार्वजनिक हिस्से में कहीं, किसी नुक्कड़ पर सेक्स करता आसानी से दिखता, मिलता है…और हम। वहीं उसी मोड़ उसी चौक-चौराहे, नुक्कड़ पर खड़े, निहारते उसे घंटों चटकारे लेकर देखते, मजा, लुत्फ, सनसनी से लसलसा उठते हैं। बाद में उसी लसलसाहट को सड़क किनारे, झुग्गी झोपडिय़ों में, बाहर खेलते, खेतों में काम करती बच्चियों, महिलाओं पर उतारते। किसी भी मुहाने पर उसे निर्वस्त्र करने से बाज नहीं आते। नतीजा, बुद्ध के बौद्ध युग की उन्मत्त कामुकता की लास्यलीला से लेकर आज तक शारीरिक जरुरत, स्त्री-पुरुष संबंध उसी दहलीज को लांघती रिश्ते को महज सेक्स से जोड़कर देखती, मिल, दिख रही है। आज भी उसी मादकता का फुलडोज लेने के लिए महानगर हो या गांव की पगडंडी, कोई सार्वजनिक जगह या फिर कोई स्कूल कहीं कोई जगह आज महफूज, सुरक्षित नहीं। तय है, हम फिर से महात्मा बुद्ध के काल, उस युग, समय में लौट, वापस जा चुके हैं। जहां मां-बेटे का शारीरिक समर्पण भी निर्वस्त्र दिखता है। बिल्कुल आधुनिक कलयुगी बाप की तरह जो अपनी बेटी का सौदा, उसकी शरीर से खेलना उसे भोग्या बनाना भी नहीं भूलता। क्या हम उसी नफस को जी, महसूस नहीं रहे जो घुटन, संड़ांध बदबू कभी बुद्ध ने महसूसा था। निसंदेह, बुद्ध का वो काल जीवित हो उठा है। उस जन्मकाल का ही यह आभास है जिन दिनों सारा देश, संपूर्ण भारत वर्ष धन-वैभव की प्रचुरता, भोग-विलास की उन्मत्त, तरंगित आवेग से अनाचार में आकंठ था। उस दौर के चित्रकार हों या कवि कोई शास्त्रवेता सभी कामकला को पारदर्शी बनाते, जनमानस को उससे जोड़ते, स्त्री-पुरुष सम्मिलन का नग्न वर्णन करते, परोसते नहीं अधाते थे। स्त्रियां यही शिक्षा पाती, कैसे सच्जा, श्रृंगार, हाव-भाव से पु़रुष को मुग्ध करें या वे होते हैं। बिल्कुल, स्पष्ट आज की आधुनिक बालाओं की तरह फेविकॉल लगाए एकदम हलकट जवानी की तरह। चहुंओर भोग-विलास का बाहुल्य उसी की चर्चा। इसमें वेश्याएं ही नहीं बड़ी-बड़ी रानियां व सेठानियों के व्यभिचार के किस्से भी शामिल। यहां तक कि आधुनिक नायिकाओं के मानिंद उनके सुशोभित, सुंदर, चटकदार वस्त्र, स्वर्णलंकार ऐसे क्षीने होते कि उनके भीतर से शरीर का पूरा मांसल सौंदर्य प्राय: नग्न रुप में सामने होता। इसके काम रस से या यूं कहें कि प्रथम यौवन में गौतम बुद्ध भी भोग की उसी तह तक पहुंच चुके थे। बाद में भर्तृहरि की तरह भोग उसके लालस्य से बुद्ध उकता जाते हैं। उनके भीतर घोर वैराग्य का भाव छा जाता है। और वही बुद्ध ज्ञान प्राप्त करने के बाद स्त्रियों के फंदे से बचने का उपाय, उपदेश पुरुषिया समाज को देते थकते चले जाते हैं। उनके मरने के बाद वही अनाचार द्विगुण वेग से फिर फूटा जो आज हमारे बीच, सामने विकराल रूप में मौजूद है। नतीजा, आज यौन कुंठा में समाज का हर तबका शामिल हो चुका है। ठीक वैसे ही जैसे, बुद्ध काल में अम्बापाली की असाधारण सौंदर्य देखकर बुद्ध भी चकित थे। उसी के आमंत्रण पर पुष्पोद्यान में वेश्याओं के परिचारकत्व में शयन भी करते हैं। हालात, हरियाणा के चांद की फिजा के घर जैसा। जहां कौन आता था कंडोम का इस्तेमाल करने। कामुक मेल वो एसएमएस कौन भेजता था किसी को मालूम नहीं। भंवरी की सीडी का फलसफा क्या था? शायद काशी में अद्र्धकाशी के नाम से विख्यात उस वेश्या की तरह जिसकी फीस प्रति रात्रि के लिए उतनी ही तय थी जितनी काशी नरेश के एक दिन की आय। उपालम्भना प्रेमी से धोखा मिलने पर भिक्षुणी तो बनती है मगर उसका बलात्कार कौन करता है उसी का चचेरा भाई जो छुप के उसके शयन कक्ष में खाट के नीचे से रात को निकलता है। मानो, आज के देहरादून के गुलरभोज इलाके के वो दो दुराचारी भाई रमेश सिंह व इंदर सिंह हों जिसे उम्र कैद की सजा मिली है। वह दोनों भी घर में चुपचाप घुसकर बहन को भोग्या बना लेता है जो बाद में आग में खुद को जला बैठती है। उस काल की उपगुप्ता हो या वासवदत्ता सब यूं ही हैं जैसे आज की गीतिका, अनुष्का या मधुमिता। उस काल में भी कई भिक्षु ऐसे थे जो भिक्षुणियों के आगे वस्त्रहीन बिल्कुल नग्न खड़े हो जाते थे। बिल्कुल, आज का वो तीन नारियों के देह से खेलता बुजुर्ग नारायण दत्त तिवारी या भाजपा का विधायक रुपम की मांस नोंच-नोंचकर खाते। उन दिनों की भिक्षुणियां भी आधुनिक नारीवाद का स्वरूप लिए, निर्लज्जता को त्यागे, वासना को भड़काते, आइटम परोसती यूं ही मिल जाती हैं। पति के बाहर रहने पर कामकला आपने पुत्र अश्वदण्ड के साथ न सिर्फ अनुचित प्रेमालिंग्न में लिपट जाती हैं बल्कि अश्वदण्ड अपने पिता चंदनदत्त की हत्या कर खुल्लम-खुल्ला अपनी माता के साथ अमानुषिक संबंध में रहने भी लगता है। वही आज की लिव इन रिलेशन यानी भूपेन हजारिका और कल्पना लाजिमी की तरह। मगर कहानी यही खत्म नहीं होती। कुछ समय बाद, कामकला यानी अपनी मां को एक सुंदर नामक वणिक पुत्र के प्रति आसक्त होने और उससे प्रेम का नाता जोड़ता देख उसका वही पुत्र अश्वदण्ड उसकी हत्या तक कर देता है। लगता है, आज का कोई फैशनेवल युवक जो पहले अपनी प्रेयसी को भोगता है और बाद में उसकी हत्या कर टुकड़े-टुकड़े कर रहा हो। यूं ही, अशोक के पुत्र कुणाल पर उसकी विमाता तिप्यरक्षिता मोहित हो उठती हैं। कल्याणी के राजा की पत्नी अपने देवर से संबंध जोड़ती दिखती है। वहीं अनुला जैसी रानी पहले बढ़ई फिर लकड़हारे उसके बाद राज पुरोहित के साथ पहले भोग लगाती है बाद में उसकी हत्या भी तलाश लेती है। पच्चपापा दो राजाओं की रानी तो बन ही गई थी मगर नाव में सवारी करते लगड़े और उस नाविक से भी अपना शरीर बांटने में संकोच करती नहीं दिखती। साफ है, बुद्ध काल में व्यभिचार की हद और स्त्रियों के प्रति अत्याचार जितने बढ़ते गए उतनी ही महिलाएं उच्चश्रृंखल होती चली गयीं। आधुनिक परिवेश के मुताबिक जितनी स्वतंत्र वो हुई पुरुषों का अत्याचार भी वैसे ही बदस्तूर बढ़ता चला गया।
हालात यही, आज देश में महिलाओं के बूते बाजारवाद का भोग हो रहा है। रातों-रात दामिनी को समर्पित वीडियो हिट हो जाते हैं। सुरक्षा के नाम पर लड़कियों के लिए सैनिक स्कूल खोलने की मांग होती है। प्रस्ताव का समर्थन संसद की एक स्थायी समिति भी करती है। वहीं, तत्काल सैन्य बलों में महिलाओं की भूमिका पर संशय की लकीर खींच दी जाती है। दलील यह कि, जंग के मैदान में उतरी महिला अगर दुश्मन के हाथों पकड़ी गयी तो क्या होगा? यानी, फिर उसी देह का मोचन। पुरुषों ने ऊंची हील के जूते पहनने 70 के ही दौर, दशक में छोड़ दिए। मगर कई पीढिय़ों से महिलाएं इसे आज भी आजमा रही हैं। कमोवेश कारण, इसी जूती से होती है उनकी कामुकता की पहचान, उसे बाजार के हिस्से में करने की साजिश। क्या, हमारी महिलाओं को मौका मिले तो वे कमाई में भी पुरुषों को पीछे न धकेल दे जैसे ब्रिटेन में। लेकिन यहां तो बीपीओ में नाइट ड्यूटी को लेकर लेबर डिपार्टमेंट में ही एका नहीं है। वैसे भी, ब्रिटेन की वाटक्लेज वेल्थ एंड इनक्टरमेंट मैंनेजमेंट की यह बात हजम नहीं होती कि वहां महिलाएं 16.5 फीसदी सैलरी अधिक लेती हैं। अरे यहां तो हेलीकॉप्टर सौदा भी होता है तो परोसी कौन जाती है वही लड़कियां। ऐसे में, मानवाधिकार निगरानी की 2013 में जारी वल्र्ड रिपोर्ट जिसमें भारत पर महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा कम करने में विफल रहने का आरोप लगा है सरासर गलत नहीं।
देश में भले महिला अपराध कानून को मजबूत करने उसमें संशोधन की बात हो रही हो। संसद से जल्द इसे मंजूरी मिलेगी यही उम्मीद भी। मगर, ठीक 14 फरवरी को तिरुवनंतपुरम में जो हुआ, वह कानून व उसके रखवालों के लिए एक तमंचा से कम नहीं। हुआ क्या, तिरुवनंतपुरम कॉलेज की अंतिम वर्ष की छात्रा अमृता शंघगुघम तट पर मनचलों से घिर जाती है। बहादुरी से वो उन लफंगों से निबटती है। मीडिया में वाह-वाह होता है। आम लोग खूब शाबाशी, बधाई देते हैं। लेकिन, अदालत के आदेश पर पुलिस उसी छात्रा को गिरफ्तार करती है और आरोप यह कि उस लड़की ने मनचलों को पीटा, उसकी कार रोक दी। वाह रे व्यवस्था…। वैसे, यह देश वही है पैसे देकर संबंध बनाने पर सरकारी रोक के खिलाफ समाजसेवी व सेक्स वर्कर उठ खड़े हुए हैं। जैसे, बुद्ध काल में बहुत सी वेश्याएं या अच्छे परिवारों की कलंकिता, समाज से बहिष्कृत स्त्रियां भिक्षुणी तो बन जाती हैं लेकिन अपने संस्कारों का निराकरण, उसे छोड़ नहीं पाती। फलसफा, वे अधिक समय तक तापस व्रत का पालन नहीं कर पापाचार, कामोत्तेजना का सहारा लेती वहीं अपने चरित्र को उघार देती है।
देश में आज महिला चिंतन पर भले जोर हो। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन दुष्कर्म के मामले में मेल-फीमेल ऑर्गन शब्द का इस्तेमाल करने व पीडि़ता की एचआइवी व हेपेटाइटिस की जांच को अनिवार्य करने की मांग जस्टिस जे.एस. वर्मा कमेटी से करता दिखे भी लेकिन उद्देश्य यही कि कांग्रेसी सांसद सुधाकरन भस्कर को कोई रेप पीडि़ता वेश्या न लगे। ठीक वैसे ही जैसे करीब पांच हजार साल पुरानी सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा से राजस्थान के अलवर व टोंक की सौ महिलाओं को इससे निकालकर उन्हें कुंभ स्नान करवाया गया। काश ! कांग्रेस भी उपसभापति पीजे कोरियन को संस्कारित स्नान करवा पाती। जैसे, बुद्ध काल में बनारस की एक रानी ने अपने पति से वचन लिया कि वह किसी पर-स्त्री को कभी बुरी निगाह से नहीं देखेगा। पर स्वयं, पति की अनुपस्थिति में राजा द्वारा उसकी कुशल पूछने के लिए भेजे गए 64 दूतों के साथ वह व्यभिचार में लिप्त रहीं। मानों, आज का गोपाल कांडा हो जो पहले बेटी को निर्वस्त्र करता है। बाद में उसकी मां को खुदकुशी पर उकसाता, फंदे भी तलाश देता है। अनाचार की इसी ज्यादती से बौद्ध धर्म की भिति यहां स्थापित न हो सकी। वह दीर्घ काल तक इस देश में ठहर न सका और विनाश को गले लगा बैठा। लगा, पश्चिम बंगाल में किसी ने कोजाल मालसात फिल्म को रिलीज करने की कोशिश कर रहा हो।
क्या इन हालात में हम महात्मा बुद्ध से कहें, कहने की स्थिति में हैं कि आओ, फिर से लौटों इस धरा पर। हे बुद्ध, तुम्हारे काल में भी तो जातकों ने माना, नारी स्वभाव का वही कुत्सित चित्र दिखाया कि स्त्री कभी विश्वास योग्य नहीं। दस बच्चों वाली भी साधारण प्रलोभन से फिसल सकती है। स्वयं तुमने भी तो स्त्रियों को पुरुषों से बहुत नीचे रखा। आज भी चिकनी कमर पर पुरुषों का ईमान डोल जा रहा है। क्या अब समय नहीं आ गया है। पूरे देश के पुरुषों की कतार की तुम अगुवाई करो। हे बुद्ध आओ और लौटा दो महिलाओं की रूठी किस्मत। लौट आओ…लौट आओ ए महात्मा बुद्ध।

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56 प्रतिक्रिया
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नवीनतम प्रतिक्रियाएंLatest Comments
yogi sarswat के द्वारा
July 25, 2013
बहुत मुश्किल होता है ऐसे कठिन और संवेदनशील विषय पर कुछ भी कह पाना या लिख पाना , लेकिन आपने जिस चतुराई से गूढ़ हिंदी शब्दों का उपयोग किया है वो इस लेख को कुत्सित नहीं होने देते और बात सार्थक बनी रहती है अन्यथा गर ये आज की बोलचाल की भाषा में लिखा गया होता तो संभव है अश्लील कहलाता ! मैं पहले से ही मुरीद हूँ आपकी लेखनी का ! मैं तब भी आपको बधाई देना चाहता था लेकिन साईट की दिक्कत थी , आपको देर से बधाई दे रहा हूँ ! बेस्ट ब्लोग्गर होने की और बहुत बेहतरीन लिखने की भी !
    manoranjanthakur के द्वारा
    July 25, 2013
    स्नेही योगी भाई, आपका स्नेह मिलता रहा है, मिलता रहेगा यही उम्मीद भी। कृपया मार्ग दर्शन देते रहेंगे यही कामना…बहुत-बहुत आभार
aman kumar के द्वारा
July 17, 2013
आपका स्वागत है मनोरंजन भाई , बहुत शोध और महेनत से लिखा है आपने ये लेख ,
बधाई हो !
    manoranjanthakur के द्वारा
    July 21, 2013
    तहे दिल से शुक्रिया
Acharya Vijay Gunjan के द्वारा
July 15, 2013
मान्यवर मनोरंजन जी ,
सादर !…समसामयिक व धारदार इस अत्युत्तम आलेख के साथ-साथ बेस्ट ब्लोगेर चुने जाने पर आप को हार्दिक बधाई ! पुनश्च !!
    manoranjanthakur के द्वारा
    July 21, 2013
    बहुत स्नेहिल आभार
sudhajaiswal के द्वारा
July 8, 2013
आदरणीय मनोरंजन जी, अति विचारणीय और सम्मान के लिए बहुत बधाई |
    manoranjanthakur के द्वारा
    July 8, 2013
    हार्दिक धन्यवाद
rekhafbd के द्वारा
July 7, 2013
‘बेस्ट ब्लॉगर ऑफ़ द वीक’ बनने पर और बढ़िया आलेख पर हार्दिक बधाई मनोरंजन जी
    manoranjanthakur के द्वारा
    July 8, 2013
    बहुत आभार आपका …तहे दिल से सुक्रिया
chaatak के द्वारा
July 7, 2013
क्या खूब संयोग है इधर आप बुद्ध के लौटने के लिए ब्लॉग लिख रहे थे और उधर बुद्ध की निशानियों को मिटाने के लिए कुछ शांतिदूत अपनी कार्य-योजना को अंतिम रूप दे रहे थे| अच्छे लेखन पर हार्दिक बधाई स्वीकार करें !
    manoranjanthakur के द्वारा
    July 8, 2013
    संयोग …शायद अब बुद्ध लोट ही जाये …बहुत आभार
Harish Bhatt के द्वारा
July 7, 2013
आदरणीय ठाकुर साहब, नमस्कार!
‘बेस्ट ब्लॉगर ऑफ़ द वीक’ सम्मान के लिए बधाई!
    manoranjanthakur के द्वारा
    July 8, 2013
    भाई आपने सराहा ..बहुत आभारी
alkargupta1 के द्वारा
July 7, 2013
बेस्ट ब्लॉगर के सम्मान प्राप्ति हेतु हार्दिक बधाई
    manoranjanthakur के द्वारा
    July 8, 2013
    हार्दिक स्वागत
nishamittal के द्वारा
July 6, 2013
सम्मान की बधाई
    manoranjanthakur के द्वारा
    July 7, 2013
    सुक्रिया ..आभार
H.C.SHARMA के द्वारा
July 6, 2013
सब भावनाओं के खिलाडी हैं भावनाएं मनुष्य को सोचने को और उसी भावानुसार करने को मजबूर कर देती है कमजोर मानसिकता वाला ,संसकार- विहीन मनुष्य पशु ही हो जाता है यह सब कुछ प्राक्रतिक है वह सब कुछ अपने-अपने स्वभावानुसार होता रहता है लेकिन मनुष्रय एक विकसीत प्राणी हैअतः वह भावनाऔं से खेलने के नए-नए रूप निकालता रहता है क्या देवता, क्या राक्षस,क्रया स्त्री ,क्या पुरूष,कोई धर्म,कोई भी व्यक्ति हो यही आपके लेख का सारांश है  क्या लेखक ,क्या कानून,क्या धर्म,कुछ कर पाते हैं हम नैतिकता का पाठ पढाकर कुछ संस्कार जरूर दे सकते हैं लेकिन वर्तमान की भौतिकतावादी दिनचर्या सब मटियामेट कर-देती है हम गौतम बुद्रध को शांति के मसीहा की तरह याद-कर यही कह सकते हैं—- ओम.. शांति ..शांति ..शांति
    manoranjanthakur के द्वारा
    July 6, 2013
    यही कहना उचित…ओम.. शांति …बहुत आभार
yamunapathak के द्वारा
July 6, 2013
बेस्ट ब्लॉगर के रूप में चयनित होने पर हार्दिक बधाई.
    manoranjanthakur के द्वारा
    July 6, 2013
    बहुत आभार …
Alarming Alarm के द्वारा
July 5, 2013
आपका लेख आदिकाल से आजतक की समयावधि के दौरान सेक्स के प्रति पशुओं से भी निम्नतर भारतीय मानसिकता को दिखाने में सर्वथा सफल रहा है. स्त्री और पुरुष, कमोवेश दोनों को ही आपने बराबर से दोषी माना है, शायद स्त्रियों को कुछ अधिक ही! …परन्तु लोकलाज के भय से आपने समानांतर रूप से स्त्रियों को अधिक भुक्तभोगी दिखाया है, सहानुभूति भी प्रकट की है उनके प्रति! …जाने-अनजाने यह, लोकलाज के चलते ही सही, ..परन्तु सही बात कह गए आप, यद्यपि मंशा उनको बख्शने की बिलकुल भी न थी आपकी! यही एक आम पुरुष सोच है आज!
मेरा व्यक्तिगत मत है यह, शायद गलत भी लग सकता है आपको, कि स्त्रियों में नैतिकता का स्तर पुरुषों की तुलना में कहीं अधिक था और आज भी है. …वो अलग बात है कि आज की स्त्री, पुरुष के साथ होड़ कर रही है, ..रेस जारी है जोरों से, …पर उसे यह भान नहीं कि कुदरत ने तो उसे अधिक अच्छा व सक्षम बनाया है, उसका स्तर अपेक्षाकृत बेहतर है पुरुष से; ..फिर होड़ करके, पुरुष की बराबरी करने के क्रम में तो उसका स्तर गिरेगा ही!! …और यही हो रहा है आज, ..और पुरुष-प्रधान भारतीय दुनिया हंस रही है, मजाक बना रही है, व्यंग लिख रही है- उस नारी के पराभव पर, जो उससे (पुरुष से) आगे थी कभी, पर आज नीचे जा रही है. मेरी हृदय से अपील है भारतीय स्त्रियों से कि–
“कुदरती रूप से आप बेहतर बनाई गई हैं, सोच में भी और शरीर से भी; मानसिकता भी बेहतर और शारीरिक सक्षमता भी विलक्षण; यही बुनियादी अंतर है आपमें और पुरुष में; इस पर गर्व करें और इसे ऊंचा समझें, क्योंकि वास्तव में यह इस लायक है; इसी कारण आप अधिक सम्मान के योग्य हैं और ऐसा सदा से होता भी आया है; आपके ऊंचे स्तर ने ही भारत के कई हिस्सों में सामाजिक संतुलन बनाकर रखा हुआ है, उदाहरणार्थ- बिहार (जहां पुरुषवर्ग में नैतिकता का टोटा है); व्यर्थ की अंधी दौड़ और होड़ में अपने को नीचे न ले जायें; कुदरत ने आपको जो विलक्षणता दी है, उसे पहचाने, उसका सदुपयोग करें, ईश्वर के प्रति कृतज्ञ हों और स्वयं की मौलिकता, मौलिक गुणों पर बेहिचक बिंदास गर्व करें. स्त्री और पुरुष की अलग-अलग फंडामेंटल प्रॉपर्टीज़ हैं, बहुत सारी कॉमन हैं पर बहुत सी बिलकुल अलग भी, ..उन्हें परखें, जानें, आजमाएं ..और तब फर्क महसूस करें, …आपको अपनी मौलिकता से एक दैवीय सुगंध महसूस होगी और अनावश्यक कृत्रिमता से आसुरी दुर्गन्ध. निश्चित रूप से यह बहुत अन्दर की बात है जिसको अनुभव नहीं वरन अनुभूत करना पड़ेगा.”
    manoranjanthakur के द्वारा
    July 5, 2013
    सचेतक जी निसंदेह आप एक सच्चे सचेतक हैं। इस लेख में किसी को ऊपर उठाने या नीचा दिखाने की कतई कोई कोशिश, तनिक भर भी प्रयास नहीं है बस यह समझाना भर कि हम अक्सर बात- बात पर कहते हैं पहले ऐसा नहीं था तार्किक प्रतिक्रिया के लिए बहुत आभार आपका।
Vandana Baranwal के द्वारा
July 5, 2013
बेहतरीन
    manoranjanthakur के द्वारा
    July 5, 2013
    बहुत स्वागत
harendra rawat के द्वारा
July 5, 2013
मनोरंजन जी,
आपने कितना समय लिया होगा यह लेख तैयार करने में, कितने प्राचीन ग्रन्थों को अलोटा पलोटा होगा, कितनी रातें आँखों में ही बिता दी होंगी ! और लेख का जो निचोड़ निकला वह सब जागरण जंक्शन के पाठकों के सामने है ! बहुत सुन्दर सटीक, समाज को दिखाने का चस्मा ! बहुत सारी बधाई आपको हफ्ते का नंबर वन ब्लॉगर बनने का जो आपका हक़ था ! जागते रहो पर भी कभी नजर इनायत करके हमें भी अपना पिच्छल्गू बना दीजिए !
    manoranjanthakur के द्वारा
    July 5, 2013
    आप पिच्छल्गू नहीं…हम सब के अगुआ है ..बहुत आभार
jlsingh के द्वारा
July 4, 2013
आदरणीय ठाकुर साहब, नमस्कार!
‘बेस्ट ब्लॉगर ऑफ़ द वीक’ सम्मान के लिए बधाई!
    manoranjanthakur के द्वारा
    July 5, 2013
    सम्मान के हक़दार हमारे सभी…आपसब स्नेही/ आदरनिये साथी है…जिन्होंने हमेशा मेरा साथ दिया…होसले को हिम्मत…ताकत दी…एक बार फिर आपसब का…जागरण जंक्शन टीम का तहे दिल से साधुबाद…बहुत बहुत आभार
DR. SHIKHA KAUSHIK के द्वारा
July 4, 2013
SARTHAK POST HETU बधाई .
    manoranjanthakur के द्वारा
    July 5, 2013
    उत्साह्बर्धन …आभार
bhagwanbabu के द्वारा
July 2, 2013
बहुत ही विचारणीय लेख….
.
सत्यता से ओत प्रोत…
    manoranjanthakur के द्वारा
    July 2, 2013
    तहे दिल से आभार
Jaishree Verma के द्वारा
July 2, 2013
सोचने को विवश करता सत्य !
    manoranjanthakur के द्वारा
    July 2, 2013
    हार्दिक आभार
Abdul Rashid के द्वारा
July 2, 2013
बेहतरीन लेख
    manoranjanthakur के द्वारा
    July 2, 2013
    आपका धन्यवाद
Rajesh Dubey के द्वारा
July 2, 2013
बुद्ध के बहाने भारतीय समाज में नारी का यथार्थ चित्रण बिलकुल प्रासंगिक है. लेख बेजोड़ है, बधाई.
    manoranjanthakur के द्वारा
    July 2, 2013
    सराहना को साधुबाद
seemakanwal के द्वारा
July 1, 2013
इतने विस्तार से आधुनिक प्राचीन दशाओं का विश्लेषण .जितनी तारीफ की जाये कम है .
बहुत -बहुत आभार .
manoranjanthakur के द्वारा
July 1, 2013
आपका बहुत बहुत सुक्रिया
ajaykr के द्वारा
July 1, 2013
आदरणीय सर जी,
बड़ा सटीक लेख लिखा हैं आपने |सच्चे मायनों में बेधड़क बात,जो कहने की हिम्मत हर कोई नही करता |बधाई
    manoranjanthakur के द्वारा
    July 2, 2013
    बहुत आभार
Ravindra K Kapoor के द्वारा
July 1, 2013
मनोरंजनजी आपका ये लेख बहूत से ऐसे प्रश्न समेटे है जो शायद हमारा ये समाज चाह कर भी नहीं दे पायेगा. आज की परिस्थितियों के अंतर को ध्यान में रख इसका निष्कर्ष निकालना कि कारण गलत हैं या कि करने वाला बहूत ही जटिल है. चुभते सच को सटीक रूप से इस लेख में रखने के लिए आपको बधाई. सुभकामनाओं के साथ …रवीन्द्र
    manoranjanthakur के द्वारा
    July 1, 2013
    आपका बहुत बहुत सुक्रिया..स्नेही रवीन्द्र भाई
alkargupta1 के द्वारा
June 30, 2013
विचारणीय व कुछ सोचने को विवश करता आलेख
    manoranjanthakur के द्वारा
    July 1, 2013
    स्नेह के लिए बहुत बहुत आभार
omdikshit के द्वारा
June 29, 2013
मनोरंजन जी, नमस्कार.
समाज के अनछुए पहलुओं एवं परदे के पीछे के सच को उजागर करती,ऐसी बेधड़क रचना जो समाज के सभी पहलुओं पर एक ही तीर से अचूक निशाना लगाती है.वासना और स्त्री-पिपासुओं का इतिहास पुराना है,जो समय-काल के अनुसार केवल पात्र और आवरण बदल रहा है.*
    manoranjanthakur के द्वारा
    June 30, 2013
    आपने सराहा …बहुत बहुत आभार श्री ॐ भाई
    jlsingh के द्वारा
    July 1, 2013
    आदरणीय मनोरंजन जी, सादर अभिवादन!
    यही पर मैं अपनी सहमती व्यक्त कर दे रहा हूँ. जो बातें ॐ दीक्षित जी ने कहा आपने भी उसी भावना को दृष्टान्त के साथ समझाया है!…. बुद्ध जबतक हमारे अन्दर नहीं आएंगे वैराग्य कैसे उत्पन्न होगा …रजनीश को ही बुला/ मना लीजिये …. और क्या कहूं? ….समय की धारा को कौन रोक सका है ….
    manoranjanthakur के द्वारा
    July 1, 2013
    स्नेही सिंह साहेब… बहुत बहुत आभार
surendra shukla bhramar5 के द्वारा
June 29, 2013
जबरदस्त व्यंग्य का पुट लिए और सोचने पर विवश करता आलेख ….बदलाव होना बहुत जरुरी है ….मानवता को ध्यान रख कदम आगे बढे ….इंसान हैवान न बने ……सुन्दर
भ्रमर ५
    manoranjanthakur के द्वारा
    June 29, 2013
    बहुत बहुत आभार स्नेही भमर भाई
priti के द्वारा
June 28, 2013
मनोरंजन जी ,बेहद साहसिक और सार्थक आलेख ….बधाई स्वीकारें …सादर प्रणाम !
    manoranjanthakur के द्वारा
    June 28, 2013
    आपने सराहा ….आपका तहे दिल से सुक्रिया…प्रीती जी