बेबसी
पोस्टेड ओन: May,25 2011 जनरल डब्बा में
महिलायें
नहा लेती हैं
खुले में
झोपड़ी के पीछे
उतारकर
सारे कपड़े।
एक-एक कर पोटली बांध कर बगल में रख लेती है बांस के खूंटे पर
आराम से
अंगों को धीरे-धीरे धो-पोछ लेती हैं
खुलेआम, सुकून से
ठीक चौराहे के पीछे
झोपड़ी के उस कोने में।
चारों तरफ जहां घूमती है
लोलुप नजरें
हमारी-आपकी चौराहों से गुजरने वाले बड़े-बड़े हाकिमों की
साइकिल, पैदल, मोटर पर चलने वालों की।
ठीक, उसी के सामने
मिट्टी, साबुन, तेल से
रगड़ती, धो लेती है महिला
छाती, पैरों को
घंटों निहारती है
झोपड़ी के बाहर
उस कोने में
जहां फटी-पुरानी साडिय़ों को घेर
बना है उसका बाथरूम।
यूं ही
एक महिला
जो बेशकीमती बाथरूम में
घंटों निहारती है अपना खूबसूरत बदन
न जाने किस-किस क्रीम से साफ करती है अपने बदन पर उग आये बालों को।
घंटों लेती रहती है
बाथ का आनंद
खूशबूदार, रंगीन टब में
स्प्रे के बीच।
चमकदार संगमरमर में पिरोये
सावर के बीच
नहाती है
बेशकीमती साबुनों, शैपू से
धो लेती है
घंटों मैकअप के अफसाने।
तौलिया लपेटे निकलती है
दुपट्टे से भींगी बालों को समेटे
ड्राइग रूम में
वहां से डाइनिंग हाल
फिर कोरिडोर होते
पहुंचती है बेडरूम
मद्धम संगीत के हौले-हौले
मिठास के बीच
घंटों ड्रेसिंग टेबल के सामने
निहारती है अपना चेहरा
पंखों
एसी के सामने
ड्रायर से सुखाती है
महकती बालों को।
संवारती है,
रंग-बिरंगी चूडिय़ों को बॉडरो से निकालती
रखती, कभी पहनती, कभी बेड पर यूं फेंकती कपड़ों को
चार एंगल से टटोलती है चेहरे को
मेकअप करती है
बिंदी, लिपिस्टक न जाने क्या-क्या लगाती है
यहां
इस झोपड़ी के बाहर
बेबसी, आंखें तरेरे, टटोलती है
टूटे-फूटे बांस, पत्तियों से
गोबर व मिट्टी के लेप के बीच
दरकती, टूटती टहनियों के अहसास में झांकती है
आंखें।
एक फटे-पुराने कपड़े से बालों को झटकती
हड़बड़ी में, सुखाती
लंबे बालों वाली महिला को
जो अभी-अभी झोपड़ी के बाहर खुली सी थोड़ी जगह पर
घास को साफ कर
बना रखी है एक बाथरूम
कोने में पड़ी टूटी
प्लास्टिक बाल्टी से टपकता पानी
उसे इशारा करती
पर निफ्रिक वह
घंटों साफ कर रही है अपने अंगों को
पोछ रही साबुन को पानी के एक-एक बूंद से
धो रही है बिना कुछ सोचे वह महिला।
बीच-बीच में रोते बच्चों को पुचकारती
जो बैठा है वहीं बगल में मिट्टी पर
जहां
हवायें
उस महिला को टटोलती
निहारती है
होठों
हथेलियों को
बाजुओं के बीच उगे बालों को छूती
उसी टाट के पीछे से
झांक रही है
हवायें
वहीं, जहां
एक गरीब
बेबस, लाचार
महिला स्नान कर रही है
झोपड़ी के एक कोने में
निस्तब्ध।
बिना कुछ सोचे, देखे
मौन।
उसे पता भी है नहीं भी।
आंखें मिलती भी है नहीं भी।
वह तो गरीब है
समाज के लिये हंसी, मजाक की महज पात्र है
खूब हंसो, निहार लो तुम जी भरके उसका नंगा जिस्म
देख लो खुलेआम गरीबों का हुस्न
पर मजाल है
जो झांक, देख भी लोगे
कभी
अमीरों की
नंगी औरतों को भी
यूं ही।
नहा लेती हैं
खुले में
झोपड़ी के पीछे
उतारकर
सारे कपड़े।
एक-एक कर पोटली बांध कर बगल में रख लेती है बांस के खूंटे पर
आराम से
अंगों को धीरे-धीरे धो-पोछ लेती हैं
खुलेआम, सुकून से
ठीक चौराहे के पीछे
झोपड़ी के उस कोने में।
चारों तरफ जहां घूमती है
लोलुप नजरें
हमारी-आपकी चौराहों से गुजरने वाले बड़े-बड़े हाकिमों की
साइकिल, पैदल, मोटर पर चलने वालों की।
ठीक, उसी के सामने
मिट्टी, साबुन, तेल से
रगड़ती, धो लेती है महिला
छाती, पैरों को
घंटों निहारती है
झोपड़ी के बाहर
उस कोने में
जहां फटी-पुरानी साडिय़ों को घेर
बना है उसका बाथरूम।
यूं ही
एक महिला
जो बेशकीमती बाथरूम में
घंटों निहारती है अपना खूबसूरत बदन
न जाने किस-किस क्रीम से साफ करती है अपने बदन पर उग आये बालों को।
घंटों लेती रहती है
बाथ का आनंद
खूशबूदार, रंगीन टब में
स्प्रे के बीच।
चमकदार संगमरमर में पिरोये
सावर के बीच
नहाती है
बेशकीमती साबुनों, शैपू से
धो लेती है
घंटों मैकअप के अफसाने।
तौलिया लपेटे निकलती है
दुपट्टे से भींगी बालों को समेटे
ड्राइग रूम में
वहां से डाइनिंग हाल
फिर कोरिडोर होते
पहुंचती है बेडरूम
मद्धम संगीत के हौले-हौले
मिठास के बीच
घंटों ड्रेसिंग टेबल के सामने
निहारती है अपना चेहरा
पंखों
एसी के सामने
ड्रायर से सुखाती है
महकती बालों को।
संवारती है,
रंग-बिरंगी चूडिय़ों को बॉडरो से निकालती
रखती, कभी पहनती, कभी बेड पर यूं फेंकती कपड़ों को
चार एंगल से टटोलती है चेहरे को
मेकअप करती है
बिंदी, लिपिस्टक न जाने क्या-क्या लगाती है
यहां
इस झोपड़ी के बाहर
बेबसी, आंखें तरेरे, टटोलती है
टूटे-फूटे बांस, पत्तियों से
गोबर व मिट्टी के लेप के बीच
दरकती, टूटती टहनियों के अहसास में झांकती है
आंखें।
एक फटे-पुराने कपड़े से बालों को झटकती
हड़बड़ी में, सुखाती
लंबे बालों वाली महिला को
जो अभी-अभी झोपड़ी के बाहर खुली सी थोड़ी जगह पर
घास को साफ कर
बना रखी है एक बाथरूम
कोने में पड़ी टूटी
प्लास्टिक बाल्टी से टपकता पानी
उसे इशारा करती
पर निफ्रिक वह
घंटों साफ कर रही है अपने अंगों को
पोछ रही साबुन को पानी के एक-एक बूंद से
धो रही है बिना कुछ सोचे वह महिला।
बीच-बीच में रोते बच्चों को पुचकारती
जो बैठा है वहीं बगल में मिट्टी पर
जहां
हवायें
उस महिला को टटोलती
निहारती है
होठों
हथेलियों को
बाजुओं के बीच उगे बालों को छूती
उसी टाट के पीछे से
झांक रही है
हवायें
वहीं, जहां
एक गरीब
बेबस, लाचार
महिला स्नान कर रही है
झोपड़ी के एक कोने में
निस्तब्ध।
बिना कुछ सोचे, देखे
मौन।
उसे पता भी है नहीं भी।
आंखें मिलती भी है नहीं भी।
वह तो गरीब है
समाज के लिये हंसी, मजाक की महज पात्र है
खूब हंसो, निहार लो तुम जी भरके उसका नंगा जिस्म
देख लो खुलेआम गरीबों का हुस्न
पर मजाल है
जो झांक, देख भी लोगे
कभी
अमीरों की
नंगी औरतों को भी
यूं ही।
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