बादल का जाना
पोस्टेड ओन: May,16 2011 जनरल डब्बा में
नाट्याकाश से बादल का जाना स्तब्धकारी है। निसंदेह बादल नाटक के सरकार के मानिंद थे। बादल सरकार नहीं रहे लेकिन उनकी सोच, मंशा हमारे बीच कई यक्ष प्रश्न के साथ रंगमंच की ओर निहार रहे हैं। पूरे देश में सिनेमाई संस्कृति ने जिस तरीके नाट्य विधा को हाशिये पर धकेलने, अलग दिशा में बहाने, मोडऩे की कोशिश की है। रंगमंच को जिस हिकारत की नजर से देखा जाने लगा है। बड़े शहरों को छोड़, निम्न व छोटे शहरों खासकर हिंदी क्षेत्रों में नाटक करते लोग गुम हो गये हैं। इसमें एक ठहराव आ गया है। एक दशक पूर्व तक जिस निर्वाध गति से रंगकर्म के उभार ने जोर पकड़ा। जगह-जगह मंचीय व समान्तर प्रस्तुति कर नाट्यकर्मियों ने निम्न से उच्चस्तरीय दर्शक तंत्र को विकसित, संगठित और तैयार किया वह एप्रोच अचानक कहीं गायब है। इतने अर्से में प्रस्तुति, अभिनय, संप्रेषण, निर्देशन हर स्तर पर शिथिल सा पड़ चुका है। इसमें विकास की गुंजाइश नहीं दिख रही है। युवा वर्गो का उत्साह ठंडा पड़ चुका है। जो कदम पहले रंगकर्म की ओर अगुआ होते थे वे टेलीवुड की ओर बढ़ रहे हैं। इसका खामियाजा एक सार्थक दर्शक तंत्र नहीं बना सकने से रंगकर्म को हुआ है। एक समय नाट्यकर्मी दर्शक से सीधे संवाद को आतुर थे। हर वर्ग के दर्शकों में इनकी पैठ थी, तारतम्य, लय, स्फूर्त और प्रतिबद्धता से एक दर्शक वर्ग खड़ा कर दर्शकों को नाटकों की बारीकियों से साक्षात्कार करा एक माहौल खड़ा करने की कोशिश भी हुई थी पर वह वर्ग लुप्तप्राय: हो गया है। भारतीय रंगमंच के इतिहास पुरुष बादल सरकार के अचानक जाने के बाद कई मौन शब्द आकार ले रहे हैं। कलाकार, संस्कृतिकर्मी, रंगकर्मी आज कहां खड़े हैं। उनका वजूद, स्वरूप, समाजशास्त्र व परिभाषा क्या है। रंगकर्मी वर्तमान में कहां किस तरफ खड़े हैं। उनकी क्या पोजिशन है। यह सोचना हर रंगकर्मी के लिये लाजिमी और यर्थाथपरक हो गया है क्योंकि उनकी सेहत पर सांगठनिक छिन्नभिन्नता, प्रशासनिक, सामाजिक और आर्थिक पाबंदी ने उन्हें ऐसे मुकाम पर ला पहुंचाया है जहां से खुद अपना विकास करने के लिये उन्हे एकजुट होकर तैयार रहना होगा खासकर यूज एंड थ्रो से बचना होगा। बादल के जाते ही एक नाम जेहन को झकझोर गया वह था- सफदर। सफदर हाशमी की शहादत के करीब 22 बरस बाद आज फिर यह समीचीन हो गया कि बादल की तरह सफदर भी क्या चाहते, सोचते थे। दोनों की चाहत, अभिव्यक्ति, मंशा, नुक्कड़ के प्रति समर्पण इन दोनों की मौत के बाद ही हल्ला-बोलकर रह गयी। संगीत नाटक अकाडमी से सम्मानित बादल सरकार ने जिस तरीके से पद्म भूषण लेने से इनकार कर दिया ठीक वैसे ही सफदर के नाम पर जैसा ताना-बाना सहमत की स्थापना कर बुना गया वह सफदर व जन नाट्य मंच की शैली व रंगकर्म से सर्वथा प्रतिकूल या यूं कहे कि जिस सफदर को एक सांस्कृतिक औजार के रूप में नुक्कड़ नाट्य रंगकर्म के कथ्य व शिल्प का अगुआ माना जा रहा था उस तंत्र को उनकी मौत के बाद आधुनिक तामझाम व उपभोक्तावादी संस्कृति का चोला डालकर बाजारवाद में परोस दिया गया। शायद उस फासीवादी ताकतों से भी घिनौने रूप में जिसने सफदर की खून से नुक्कड़ नाट्यकर्म को अपवित्र कर दिया था। खुद फासीवादी तो सफदर की मौत को तमाशा मान दो दशक से जश्न में डूबे रहे लेकिन उनकी मौत या शहादत की सार्थकता को कुछेक नाट्यकर्मियों की सोच ने जरूर गंदा कर दिया। फूहड़ व अश्लील कार्यक्रम सफदर व उनकी अशांत वैचारिक आत्मा को आज भी कचोटती होगी लेकिन इस वनवास ने अंतत: सफदर के नाम पर रोटी सेंकने वालों का क्या हश्र किया और क्या सांस्कृतिक फजीहत की वह सबके सामने है। आज बादल का जुलूस कहीं नुक्कड़ों पर निकलता नहीं दिखता। रंगमंच की परंपरा से हटकर नया आयाम देने वाले और समकालीन रंगमंच को उठाव देकर प्लेटफार्म तैयार करने वाले नामचीन हस्ती, विशिष्ट, वरिष्ठ, संस्कृतिकर्मी, अभिनेता, निदेशक, लेखक बादल के निधन की खबर को कोने में समेट देना निसंदेह उस विधा के खिलाफ साजिश सरीके है जिसे बादल ने लंबे समय तक जिया। कहीं कोई पूरे देश में श्रद्धा सुमन देने वाले नहीं दिखे। राजनीति की रोटी खाने वालों ने ठीक उसी दिन जिस दिन बादल ने अंतिम सांसे ली किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत की मौत पर आंसू बहाते दिखे लेकिन बादल के लिये एक शब्द किसी के पास नहीं था। जो शख्स हमेशा गरीबी, आतंकवाद, भूख, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी के खिलाफ लड़ा, अभिव्यक्ति की धारदार विधा को जड़ मूल से उखाड़ फेंकने के लिये व्यवस्था का बर्बर कुल्लाड़ झेला उसके प्रति हमारी यह संकीर्ण सोच सोचनीय है। जरूर है पुलिस, नेता, पूंजीपति मौजूदा व्यवस्था मुनाफा व लूट को बेनकाब कर सीधे जनता तक पहुंचाने की जिसके बिना रंगकर्म को जिंदा रखना मुमकिन नहीं।
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