Sunday, May 8, 2011

देख ले घूम कर मेरा हिन्दुस्तां


देख ले घूम कर मेरा हिन्दुस्तां
कारगिल युद्ध में शहीद लोगों के नाम पर हमारे देश में ताबूत घोटाला हो चुका है और यह वहीं देश है जहां आज विश्व कप में भारतीय टीम की जीत पर धन की मूसलधार बारिश हो रही है। भारत में पहले एक सचिन ही क्रिकेट के भगवान थे। आज हर खिलाड़ी उस दर्जे में है। पर कारगिल सरीके न जाने कितने युद्ध में देश के लिये सिने पर गोलियां खाकर लहुलूहान होने वाले शहीद के विधवाओं की सूनी कलाई, पथरायी आंखों को सांत्वना देने के लिये न तो सरकार के पास वक्त है ना ही किसी निजी कंपनियां ही आगे आने को तैयार। क्या विज्ञापन में उन शहीद योद्धाओं के परिजनों के लिये कोई जगह नहीं हो सकती। क्या मुंबई व कारगिल युद्ध में शहीद हमारे जांबाज अफसरों के परिवार पोलियो के खिलाफ जंग में विज्ञापन करते टीवी पर नजर नहीं आ सकते। क्या उनकी पुकार, अपील देश के लोग नहीं सुनेंगे। या उन्हें सुनाया नहीं जा रहा। वे अंधेरे की गुमनाम जिंदगी जी रहे हैं, दरकिनार हैं। कहां हैं,किस हाल में हैं, किसे-क्या पता। यह क्रिकेट आज उस महायुद्ध से भी बड़ा हो गया है जिसने न जाने कितने घरों की रोशनी बुझा दी। बच्चे आज भी पिता की याद में मोमबत्तियां जलाये सूनी रातों में आंसू बहा रहे हैं। बूढ़े कमजोर कंधों से अपने बेटे की अर्थी उठाने वालों का दर्द आज भी उनके सिने के बालों में पिरोये हैं। क्या किसी केंद्र या राज्य सरकारों के पास फुर्सत के दो पल उनके लिये हैं जिनका कोई अपना दिन-रात, धूप-बारिश की परवाह किये सरहद की हिफाजत में जुटा रहा ताकि हम चैन ी नींद सो सकें। मुंबई हमलों के शहीद हों या कारगिल में छलनी होने वाले, देश के नाम पर मर मिटे हमारे शहीदों के परिजन किस हाल में जी रहे किसी ने सोचा या सोचने की कभी जरूरत महसूस की। शायद नहीं। कहां हैं सरकार के नाम पर सत्ता का सुख पाने वाले। रोते-बिलखते बच्चे, विधवाओं की चीख, बूढ़ी मां का कलेजा व लाचार बाप के थक चुके पांव को मरहम लगाने वाला इस देश में कोई है। कहां हैं सोनिया गांधी के थिरकते कदम, राष्ट्रपति की चाय पार्टी, हाली, बाली के नामचीन स्नो, पाउडर लगाने वाले। कहां हैं देश में जीत की खुशी में होली-दीपावली मनाने वाले लोग। देश के नाम पर तिरंगा को कफन बनाकर ताबूत में लेट जाने वाले जांबाजों, जिसने सीने को गोलियों से छलनी कर मातृभूमि की रक्षा में अपने परिवारों को भी सदा के लिये तिल-तिल कर मरने के लिये छोड़ दिया। जो अब कभी लौट के नहीं आयेगा दोबारा अपना देश, समाज व परिवार में। जिसके परिवार अब नहीं खेलती कभी होली। दीपावली पर जिसके घर दीप नहीं जलते। क्या उन शहीदों के परिजनों के लिये कभी धन की बारिश हुई है। शायद नहीं। यही लता दीदी टीम इंडिया की जीत के लिये उपवास रखती हैं। कभी उसी ने ही गाया था-ए मेरे वतन के लोगों जरा याद करो कुर्बानी। क्या हममें से कोई है ऐसा भी जो अपने सपूतों को दो पल याद भी कर ले। क्या वतन पे मरने वालों का यही बांकी निशां है। शहीदों की चिताओं पर मेला लगाने वाले आज कहां हैं। क्या कभी इन शहीद के परिजनों को किसी सरकार ने अपना ब्रांड एंबेस्डर बनाया। क्या मैंनेजमेंट की पढ़ाई में कभी किसी शहीद का अध्याय भी जुड़ा है। आज भी हम कसाब को पाले करोड़ों पानी में बहा रहे हैं और हमारे मुंबई हमले में शहीदों के परिजन महज न्याय की उम्मीद में टकटकी लगाये बैठे हैं। विश्व युद्ध सरीके था विश्व कप क्रिकेट। वहीं जुनून, उन्माद, वहीं जोश व उत्साह। हर भारतीयों के दिल में दुश्मनों को छक्के छुड़ा देने की हसरत। करो या मरो की तमन्ना। सिने में तूफां लिये खिलाडिय़ों की टोली। मानो हाथ में गेंद व बल्ला नहीं एके 47 व तोप कोई हथियार हो कि एक ही झटके में दुश्मन क्लीन बोल्ड। जीतना कौन नहीं चाहेगा। चाहे युद्ध हो या क्रिकेट का मैदान। दनादन गोलियां चलती हैं युद्ध में और चौकों-छक्कों से तेजी से रन जुटाते हैं हमारे खिलाड़ी। दोनों ही जगह देश की प्रतिष्ठा जुड़ी होती है। लेकिन फर्क इतना भर है कि युद्ध हम खून की होली खेलकर जीतते हैं और क्रिकेट में जीत पर हम रंगों की होली खेलते हैं। खून की होली खेलकर वो भारत मां की रक्षा तो कर लेते हैं लेकिन सदा के लिये अपनों को रोते बिलखते छोड़ जाते हैं और क्रिकेट में जीत पर अपनों को हम धन से लाद देते हैं। रातों रात खिलाड़ी करोड़ों के मालिक बन गये। क्या नहीं मिला। धन भी, इज्जत भी, बंगला भी कार भी। लेकिन मातृभूमि को अक्षुण्ण रखने की जिसने कसमें खायी थी। सरहदों पर राष्ट्रीय, एकता, समर्पण का जो मिसाल था। देश की माटी को छू कर जिसने हमारी हिफाजत, प्रतिष्ठा को तार-तार नहीं होने देने का संकल्प लिया था। उसके बच्चे को एक बार गोद लेकर तो देखो। पर फुर्सत कहां है हमारे पास। क्रिकेट महज खेल है जिंदगी नहीं। एक खिलाड़ी हारता है तो दूसरा सिर्फ जीतता भर है। उसकी जिंदगी महफूज रहती है। मुंबई में टीम इंडिया ने सचिन के लिये विश्व कप खेला तो श्रीलंका ने मुरलीधरन के लिये। मुरली को एक भी विकेट नहीं मिला। सचिन को कंधे पर बैठाकर पूरे स्टेडियम का चक्कर लगाया गया। यह महज खेल का एक हिस्सा है किसी की जिंदगी नहीं। करकरे आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन हारने के बाद भी संगकारा आईपीएल 4 खेल रहे हंै।  चमन भी अपना है फूल अपने बागबां अपना-तरस रहे हैं मगर लज्जते बहार को हम। क्रिकेट खिलाड़ी करोड़ों में बिक रहे हैं और देश के नाम पर जिसने गोलियां खायीं उसके परिजन आंसू बहा रहे हैं। ये ऐसा फर्ज है जो मैं अदा नहीं कर सकता। मैं जब तक घर न लौटूं मेरी मां सजदे में रहती है। आज हर शहीद की मां सजदे में है यह जानते भी कि उसका लाल नहीं आयेगा कभी लौटकर दोबारा। वह वही मां है जो सिर्फ खोना जानती है। बदले मे अपने तिरंगे के तीनों रंगों को लहू से धोकर फहराना जानती है यह कहते कि शहर का शहर खंडहर में हुआ तब्दील मगर-मां के आंचल में जो बच्चा था वो जिंदा ठहरा। जरा सोचिये। इस देश को किसके हवाले किया जाये। अन्ना हजारे के, क्रिकेट को पैसे से खरीदने वालों के या उस आत्म बलिदान और स्वाभिमान के रंगों में दौड़ते रक्षकों के हाथ जिन्हें हम नमन करना भी भूलते जा रहे। सच मानो-
                                 ऐसे लेने से तो है जान का देना अच्छा-क्या जिए गर जिए अहसान किसी का लेकर।  
          
        

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