Saturday, January 8, 2011

जरा रूपम के बारे में सोचिये

जरा रूपम के बारे में सोचिये

जरा रूपम पाठक के बारे में सोचिये। वो शातिर अपराधी नहीं है। ना ही पेशेवर। वह तो समाज की अगुआ है। उस पथ की सृजनात्मक राही जहां से तालीम की रोशनी समाज में फैलती, चमकती है। तो भला शिक्षा का अलख जगाने वाली रातों रात कातिल कैसे बन गयी। सुशासन की दूसरी पारी जितने वाले मदहोश भ्रष्टाचार के खिलाफ मजबूरन हल्ला बोलने में लगे हैं। ठीक ऐसे में रूपम के रूप में एक सफेद, भयावह सच भला सदा सच और जनता की सेवा का लबादा ओढ़े नेताओं को कैसे हजम हो सकता है। ऐसे में रात की स्याह सिसकती चूडिय़ों को फोडऩे वालों की काली करतूत को पर्दाफाश करने वाली रूपम को भला कौन न्याय दिलाने की सोचेगा। रूपम तो समाज की वह रूप है जिसमें महिला सशक्तीकरण का समर्थन भी है और उसे नये हथियार से लैस करने की कोशिश भी। रूपम उस दागदार व्यवस्था के खिलाफ साक्षात् दुर्गा स्वरूपा है जिसके भीतर ना जाने कितनी रूपम दबी, शोषित व प्रताडि़त हर दिन हो रही है। गांधी टोपी वालों की गर्म बिस्तरों पर सिसकती कितनी रूपम है जो आज तक हथियार नहीं उठा पायी।
                      जरा रूपम की विवशता के बारे में सोचिये। सरकार सुशासन की। लाल टोपी सुशासन की। डंडा सुशासन के पास। मीडिया सुशासन के पास। मरने वाले नेता सुशासन के। जी रहे नेता सुशासन के। हर दिन बयान देने वाले, बोलने वाले, रूपम को कंलकित,तार-तार करने वाले उसके परिवार को धमकाने वाले, उसे परिजनों से नहीं मिलने देने वाले सुशासन के। यहां तक, राज्य महिला आयोग सुशासन क ी। काल कोठरी की दीवारें सुशासन की। मुंसिफ के नाम पर सुशासन के साथी ही। न्याय करेगा कौन? हक में फैसला देगा कौन? कौन देगा रूपम के भीतर के स्वर को आकार। किसकी चलेगी इस दबंगई के सामने। ससुर भ्रष्ट तंत्र के साथ है। व्यवस्था के आगे नतमस्तक। एकमां है बेचारी। इंसाफ के लिये आवाज तो उठा रही लेकिन उस पीडि़त मां के साथ कोई भी खड़ा नहीं दिखता। कहां तक इस तंत्र से जूझेगी। वकालत के काला कोट पहनने वाले भी नहीं मिल रहे थे जो न्यायपालिका से उम्मीद की भीख भी मांग सके। कसाब के लिये काला कोट आसानी से खड़ा मिलता है लेकिन रूपम के लिये...। शोषण के किस मानसिक दुराचार को वो झेलती रही, कभी किसी ने सोचा। वो पेशेवर अपराधी नहीं है कि एक झटके से किसी का सिर कलम कर दे। वह तो व्यवस्था की सड़ती कुव्यवस्था से आजिज होकर वार कर देती है और महज संयोग मानिये कि पूर्णिया के विधायक राजकिशोर केशरी की उस हादसे में मौत हो जाती है। समाज में आज भी जनप्रतिनिधि आदर के पात्र हैं। यहां तक कि समाज के बीच का ही आदमी मुखिया बन जाता है तो वो मुखिया जी हो जाता है तो भला केशरी तो विधायक थे और उस रूपम के विद्यालय में आ चुके थे जहां वह नित्य शिक्षा की पूजा करती थी। तो भला ये अचानक विभत्सता कहां से आ गयी।
                रूपम आज अकेली है। हम समाज के बीच हैं जहां न्याय और अन्याय हमारे सामने साक्षात्कार कर रहा है। जरूरत है समाज को रूपम जैसी आइकान की। असुरक्षित हो रही बहू-बेटियों को ऐसे कामुक नेताओं व धर्मगुरुओं से बचाने की जो महिलाओं को एक जिस्म समझने की धोखा कर रहे हैं। रूपम उन सबके लिये एक सबक है। मगर बड़ा सवाल कि सरकार के सबसे बड़े सिपहसलार सीबीआई से जांच को क्यों मुकर रहे? सबसे बड़े मुखिया चुप्पी साधे बैठे हैं? सरकार के प्रमुख अभिभावक होने के कारण उन्होंने कभी अपने कनिष्ठ से पूछने की कोशिश नहीं कि आखिर विधायक हत्याकांड की सीबीआई जांच क्यों नहीं? शायद इसलिये कि केसरी कनिष्ठ के खाते के विधायक रहे हैं और सच का सामना करने में पार्टी को घबराहट हो रही है कि कहीं बात निकली तो दूर तलक न चली जाये...।  

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