Saturday, January 15, 2011

फिर ना आऊंगा कभी, ये वादा है मेरा

 फिर ना आऊंगा कभी, ये वादा है मेरा

 ना बाबू, फिर दोबारा नहीं आऊंगा आपके शहर में। अब तक देश के करीब हर कोने को मैंने छूआ है। वहां की गलियों में बांसुरी बजायी है। लोगों का मन मोहा है। एवज में, लोगों ने मेरी बांसुरियों की खरीदारी बड़े शौक से की है। दरभंगा में हफ्ते भर अभी रहूंगा। यहां की गलियों को पहचानूंगा। बांसुरी बेचूंगा। खुदा मेरी तंग झोली में जितना डालेंगे लेकर इस मिथिलांचल की मिट्टी की खूशबू और याद सहेजकर चल पड़ूंगा अपने पड़ाव की ओर, फिर कोई नया शहर, अजनबी लोग, गलियां, नया मौसम। हां, कोई साथ होगा तो वो है मेरी बांसुरी। यह कहना था एक बांसुरी वाले का। कोहासे से भरी दोपहर। ठंडक ऐसी सांस लेना भी मुश्किल। लोग घरों में बंद। वातावरण में निस्तब्धता। रह-रह कर सिसकती पछिया हवा के झोंके। ठंड के थपेड़ों के मानिंद। इसी बीच सन्नाटे को तोड़ती दूर से आती सुरीली बांसुरी की तान। मानों, रूह में कोई गर्मी का एहसास, ठंडक घोल गया हो। धुनें भी ऐसी, जैसे पाश्चात्य व सदाबहार गीतों को किसी ने एक साथ पिरो दिया हो। घर आया मेरा परदेशी। बहरों फूल बरसाओ। झलक दिखला जा। कचरारे-कचरारे। लोगो के कदम ठिठक पड़ते हैं। भीड़ जुटती है। भीड़ जुटने का
अहसास बांसुरी वाले के चेहरे पर है। वह माथे पर पगड़ी को सलीके से संवारता है। एक हाथ में बांस की टहनी से सजी रंग-बिरंगी बांसुरी, दूसरे में उसकी अपनी पसंदीदा छोटी सी बांसुरी। गोया, कह रहा हो, इस छोटी सी बांसुरी में है कितने चमत्कार तो बाबू मेरे पास तो है इससे भी बढिय़ा एक  से एक बांसुरी। आओ न पास। देखो, मन हो तो लो, नहीं तो कोई बात नहीं। देखने के थोड़े ही पैसे मांगता हूं।
                               दरभंगा के रहमगंज के इस मोहल्ले में घुमते बांसुरी वाले से मैंने पूछा, कहां के रहने वाले हो भाई? तुम तो कमाल की बांसुरी बजाते हो? बांसुरी वाला मुस्कुराता है। किशनगंज के दिघलबैंक का रहने वाला हूं। नाम है किसुन। उम्र यही कोई 65 के करीब। सांवला, मझौला कद। सलीके से कटी मूंछ। माथे पर लाल रंग की पगड़ी। हाथ में सुंदर सी बांस की छोटी बांसुरी। मेरी बात सुनकर वह यूं मुझे देखता है जैसे ठहरती उसकी जिंदगी को कोई मकसद, दो कदम मिल गये हों। कहता है बाबू, ये मेरा पुश्तैनी धंधा है। बाप-दादा सभी बांसुरी बेचते थे। अब तो बांसुरी के कद्रदान रहे नहीं। मेलों-हाटों में कम दाम के बांसुरी लेकर घूमता हूं। बड़े तो नहीं पर बच्चे अभी भी इसके शौकीन हैं। बस, दिनभर में इतना कमाता हूं रोटी मिल जाती है। पत्नी को मरे अरसा हो गया। एक बेटी है पारू। शादी हो चुकी है। दामाद पुनीत। सिलीगुड़ी में बांसुरी का ही कारोबार करता है। बड़ा लड़का चलितर कोलकाता में कमाता है पर छोटका महेश उसे बांसुरी का बड़ा शौक है। लगता है यूं ही गलियों में मेरी तरह घूमेगा। 
           तब तक काफी भीड़ जुट जाती है। लोग चार रुपये से लेकर 80 रुपये तक की बांसुरी खरीदते, देखते हैं। तभी भीड़ से एक बच्चा कहता है-जरा दबंग का गाना सुनाओ न बाबा मुन्नी बदनाम हुई और मुस्कुराते किशुन मुन्नी बदनाम हुई की धुन मे ऐसे खो जाता है गोया, उसे मंजिल मिल गयी हो। उसकी बड़ी-बड़ी आंखें भीड़ में यूं गोल हो जाती है, मानो कह रही हो सिर्फ एक बार यूं ही प्यार से देख मुझे, फिर ना आऊंगा कभी ये वादा है मेरा।

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