Wednesday, February 23, 2011

मुनसिफ खड़ा है खुद ही सजा के लिबास में

मुनसिफ खड़ा है खुद ही सजा के लिबास में
न्याय किसे चाहिये। अजमल कसाब को। आम आदमी को। रूपम पाठक को या विधायक केसरी को। मुंबई हाई कोर्ट की निचली अदालत के फैसले पर मुंबई की उच्च न्यायालय ने मुहर लगा दी है। आम आदमी पर इसकी कोई सार्थक प्रतिक्रिया नहीं है। चिदंबरम इस फैसले पर भले ही न्याय प्रणाली के प्रति आभार जताया हो पर जो आम आवाम है वो आज भी वहीं खड़ा है। सिर झुकाये खामोश। इतना ही नहीं महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के उस बयान से कतई हमदर्दी भी उसे नहीं कि यह फैसला लोकतंत्र की जीत या ऐतिहासिक है। ऐतिहासिक तो तब होता जब
पकड़े जाने के तुरंत बाद कसाब को होटल ताज के बाहर सरेआम उसे फांसी पर लटका दिया जाता लेकिन ऐसा कुछ होता नहीं दिखा। पाक भी अपनी जगह राग अलापता रहा और भारत भी कसाब को जिंदा रखने में करोड़ों पानी में बहा दिये। लोगों, आम-आवाम की नाराजगी, गुस्से को कहीं से शांति नहीं मिली। जलते जेहन को शांति तब मिलती जब कसाब के बचाव, उसे निर्दोष साबित करने वाला कोई काला कोट पहने अदालत में नहीं दिखता। लेकिन एक क्या, एक  के बाद एक चार काला कोटधारी उसके समर्थन में जिरह करते, तर्क, बहस करते दिखे। यह कैसी व्यवस्था है। कैसा न्याय है यह। किसी निर्दोष को न्याय दिलाना कोई गुनाह नहीं बल्कि उस पेशे का धर्म, ईमान है। लेकिन खुद को टीवी पर परोसना, अखबारों की सुर्खियों में छाये रहना। कसाब के साथ खुद को जोड़े रखना क्या है। पैसा, नेम एंड फेम में इस कदर अपने पेशे व देश के साथ नाइंसाफी क्यों। या फिर बाजारवाद व प्रचारवाद का महज हिस्सा बनकर समाज को आप क्या दिखाना चाहते हैं कि कसाब निर्दोष है। कसाब के उस फर्जी तर्क को न्याय के लिये परोसने कि पुलिस ने उसे अपराध की साजिश में फंसाने के लिये गिरगांव चौपाटी पर फर्जी मुठभेड़ की। वह निर्दोष है बच्चा है उसे छोड़ दो। यह दलील देने से पहले कहां गया रामायण, कुरान,बाइबिल व गीता की कसम। कम से कम उसे तो स्मरण कर लेते। इतना ही नहीं, अदालत भी उस तर्क के आगे सीसीटीवी फुटेज दो बार देखे। उसपर तुर्रा यह कि हमारे देश की माटी में पले-बढ़े काला कोट पहने कसाब की फांसी की सजा को अब सुप्रीम कोर्ट ले जाने की दलील देते उस आतंक के समर्थन में फिर से खड़े दिख रहे हैं। क्या न्याय का मतलब आज यही है। अगर है तो उस रूपम पाठक के बारे में काला कोट वाले क्यों नहीं सोचते। जिन्हें न्यायपालिका तक अपनी आवाज रखने के लिये कोई समर्थ काला कोट नहीं मिल रहा। रूपम पेशेवर अपराधी नहीं है। वह आतंकवाद का रूप नहीं है। आतंक फैलाने, खून की होली खेलने वाली मशीन नहीं है वो। वह कसाब नहीं है। वह तो समाज की अगुआ है। समाज की बहू-बेटी है। पढ़ी-लिखी शिक्षित शिक्षा की लौ जलाने वाली महिला है। कसाब की तरह आतंकवाद पोषित, सुरक्षित कठपुतली नहीं जो लोगों की जान लेने पाकिस्तान से यहां पहुंचता है। हां, यह सही है कि रूपम कसाब की तरह गोश्त नहीं परोस सकती। नतीजा भी सामने है। रूपम के समर्थन में कोई बहस करता नहीं दिखता। उसकी मां एक लाचार औरत, रहम की भीख मांग रही है पर कोई भी काला कोट पहने उस बेबस महिला की आवाज सुनने को तैयार नहीं है। कैसा तंत्र है यह और कितने भ्रष्ट हो गये हैं हम।  कसाब के बचाव में चार वकील और रूपम के समर्थन में एक भी नहीं। यही है न्याय। यही है व्यवस्था का असली चेहरा जो मुरझा अब कुंठित हो चुका है। मुंबई हमले में शहीद अशोक कामरे की पत्नी विनीता कामरे की ठहरी जिंदगी से बाहर आये शब्द एक बानगी है कि हर किसी की तरह उन्हें भी उम्मीद थी कि मुंबई न्यायालय कसाब की मौत की सजा की पुष्टि कर देगा-यानी आज भी कसाब उम्मीद पर ही टिका है। रूपम सलाखों के पीछे गुम है और अजमल आमिर कसाब मौत की सजा की खबर सुनकर भी मुस्कुरा रहा है। यही है हमारा सिस्टम जिसके बदौलत हम न्याय मिलने की टकटकी लगाये बैठे हैं और रहेंगे ता उम्र कि सच्चाइयों का कौन सुनाएगा फैसला, मुनसिफ खड़ा है खुद ही सजा के लिबास में।  

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