Wednesday, October 3, 2012

क्या मैं नायक नहीं


क्या मैं नायक नहीं

पोस्टेड ओन: 23 Jul, 2012 जनरल डब्बा में
उसकी देह कहीं मोती, कहीं लाल मणि, कहीं श्वेत संगमरमर, कहीं नीलम से पुष्ट हुई। उसके स्पर्श में कितनी
कोमलता है, दर्शन में कितनी मधुरता, स्वयं प्रकृति उसके रूप की प्रशंसा करती है। देव तक उसे देखकर मुग्ध हो जाते हैं। कामदेव तो स्वर्ग छोड़ उसी के नेत्रों से अपनी शर तीक्ष्ण करते हैं। क्या वह मेरी नहीं होगी? आजकल टीवी धारावाहिकों, विज्ञापनों में दौड़तीं, खिलखिलाती हसीनाएं, हर रोज जिस विमर्श को आमंत्रित, न्यौता दे रही हैं, जिस सुंदर स्त्री को देखते ही ह्रदय में श्रृंगार रस स्फुटित, टपकने लगता हो, वही तो हमारी नायिका है। जो हमारे व्यथित, घोर निराशा के तम में आशा का प्रकाश बनकर झांक रही है। पर यह शिशु की तरह मेरा विकट मचलना कैसा। ये शशि को पाने को हठ, ढंग कैसा? क्या मैं नायक नहीं? उस सौंदर्य,रूप, लावण्य का मैं पुजारी नहीं? सौंदर्य की अभिव्यक्ति में स्त्री रूप की प्रधानता माना आज भी है। स्त्री प्रेम की मूर्ति है, देह की लसलसाहट में सुख वहीं से संभव है पर क्या मैं शौर्य का स्वरूप नहीं? स्त्री के शरीर में कोमलता, मखमली स्पर्श के भाव हैं तो क्या मेरे वश कठोरता नहीं। स्त्री चरित्र में ममता, दया, क्षमा, चंचलता के गुण तो क्या मैं धैर्य, क्रोध, गंभीरता का अभिव्यक्त नहीं। स्त्री की तेजस्विता उसकी दीनावस्था में प्रकट होती है तो पुरुष का पराक्रम उन्नावस्था में क्या दिखाई नहीं देता। साफ है, जहां वो है वहां मैं भी हूं। जहां नायिका है वहां नायक यानी मैं सुंदर, गुण-रूप, यौवन संपन्न नर जिसे मादाएं कामुक, ललचाई, श्रृंगार की नजरों से रसपान करती नहीं थकती हैं।
एक नायिका अपने पति के दोष देखकर भी क्रुद्ध, कदापि विचलित नहीं होती। पति के अहित करने पर भी सदा उसका हित मनाती, करती है। वह सोचती है एकांत में अपने मन में बुदबुदाती है। मैं सुंदरता की प्रतिमूर्ति नहीं चाहती। मैं तो चाहती हूं ऐसा कोमल ह्रदय हो, ऐसी दृढ़ अविरल वुद्धि हो। लोभ में भी मैं जिस पर विश्वास कर सकूं। जिससे मैं अपने गुप्त निवेदन, दु:ख, वेदना, उस मांग, जरूरत की बातें कह सकूं जिससे मेरी समस्त चिंताएं, संताप, मन की गांठे खुल जाए।
दूसरी नायिका, जो प्रियतम के दोष देखकर भी मान-सम्मान करने को बेचैन रहती, दिखती, करती। उसकी नजरें तो टटोलती, ताकती तो मेरी तरफ इस सलीके से है मानो उसका प्रेम मेरे लिए नहीं है लेकिन उसकी नेत्रों में जो चाहत की चिंगारी, लौ जल रही है वह सिर्फ व सिर्फ मेरे लिए है। वह जलती भी मेरे लिए, तड़पती भी है तो हर नफस में मैं ही मैं हूं।
तीसरी नायिका भी अभी-अभी झरोखे से निकली है। अपने नायक का इंतजार
करते-करते, उसकी याद में थकी-मांदी सखियों को पुकारती है। हे सखी, मेरे स्वामी जिनके स्पर्श से ही मुझे अविरल धार के मानिंद पूरे बदन में हिलकौरे उठने लगते हैं। मैं तरंगित हो उठती थी पता नहीं वो किस क्षण आएं और मुझे छूएं, मेरे तन-मन को भिंगोएं। अपने बालों को संवारती हुई वह अपने प्रियतम की प्रतीक्षा में बैठी है। यह सोचकर कि मेरे सलीके बालों को देखकर वे रोमांचित हो उठेंगे। मेरे आगोश को बांहों में भर लेंगे। वह आईनें को बार-बार निहारती है। कभी वह रिवन लगाती है कभी गुलाब जो मैंने कटीले झाड़ से तोड़कर उसके लिए ही तो लाए थे। जिसकी खूशबू उसकी रेशमी बालों को मदहोश कर रही है और वो कांटा मेरे साथ ही लौट आया है। वह विरह में मेरे आने का इंतजार बस इंतजार ही करती जा रही है।
एक कोने में चौथी नायिका भी है। जो प्रियतम, नायक यानी मुझसे प्यार, संतुष्टि पाकर भी तिलमिलाती, रूष्ट रहती है। हे प्रिय, अब इतना दु:ख, छटपटाने से क्या लाभ। तुम इतनी पीली क्यों पड़
गई हो। वह रूठी ही रहती है। उसकी चाहत में अनंत गोते मैं लगा चुका हूं पर एक वो है मानती ही नहीं। अगर वह खुद से प्रेम नहीं कर सकती तो किसी भी तरह मनाने से वह राजी नहीं होगी। उसके सामने तमाम निवेदन भी व्यर्थ हैं।
हे प्रिय
तुम पूर्ण हो, खूबसूरत हो
पर तुम्हें भी चाहिये एक आदमी
जो तुम्हें मसल सके
तुम्हारे यौवन के ऊफान को शांत-शीतल कर सके
बलात या स्वेच्छा से
पर तुम्हें हर-हाल में चाहिये
एक आदमी।
तुम
संगमरमर सी साफ हो
चांदनी की तरह स्वच्छ हो
या
सफेद चादर की तरह घुली हो
पर
तुम्हारे अंदर के
रक्त को मथने के लिये
हर-हाल में चाहिये
एक आदमी।
तुम
उपजाऊ भूमि हो
जमींन का वह टुकड़ा हो
जिसमें एक बीज की
दरकार, जरूरत है
और वह
बीज देने वाला चाहिये
एक आदमी
जो मैं हूं …।

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